Dronacharya and eklavya story in hindi | द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी

एकलव्य और द्रोणाचार्य की कहानी, महाभारत से लिया गया है। जिसमें एक गुरु और शिष्य की कहानी है। आपको ऐसे तो इससे जुड़ीं बहुत सी कहानियाँ पढ़ने को मिलेगी। मगर हम इस पोस्ट में आपको एकलव्य और द्रोणाचार्य की कहानी सुनाने जा रहे हैं।

Dronacharya and eklavya story in hindi

द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी : किसी राज्य में निषादों के एक राजा थे। उनका नाम हिरण्यधनु था। उनका एक पुत्र भी था। जिसका नाम एकलव्य था। उसकी रूचि धनुर्विधा में अधिक थी। इस उद्देश्य के लिए वो द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करना चाहता था मगर द्रोणाचार्य सिर्फ उच्च जाति के बालको को ही शिक्षा देते थे।

हिरण्यधनु ने एकलव्य को बहुत समझाया पर वो नहीं माना। वो एक दिन वो हस्तिनापुर चला गया। हस्तिनापुर कौरव-पाण्डवों की राजधानी थी।
द्रोणाचार्य उन दिनों युद्ध विद्या के बहुत प्रसिद्ध आचार्य थे। वो उन दिनों कौरव और पाण्डवों को धनुर्विद्या का ज्ञान दे रहे थे। हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य के लिए ही एकलव्य आया था।

द्रोणाचार्य के पास जाकर दूर से ही एकल्व्य ने उन्हें साक्षात प्रणाम किया। आचार्य ने उसकी वेश-भूषा से ही पहचान लिया कि यह किसी निम्न जाति का बालक है।

द्रोणाचार्य ने बालक से पूछा- ‘‘बालक! यहाँ तुम किस कार्यवश आए हो?’’ एकलव्य ने कहुत विनम्रता से कहा- ‘‘मैं आपके श्रीचरणों में रहकर धनुर्विद्या की शिक्षा लेने के लिए सेवा में प्रस्तुत हुआ हूँ।’’

द्रोणाचार्य संकट में पड़ गए। वे कौरव और पाण्डवों को यह शिक्षा दे रहे थे। वे जानते थे कि निषाद बालक को शिक्षा देना उनके शिष्य स्वीकार नहीं करेंगे। वे स्वंय भी इस पक्ष में नहीं थे। अतः उन्होंने कहा- ‘‘बेटा एकलव्य मैं खेद के साथ कह रहा हूँ कि मैं किसी निम्न जाति के बालक को शस्त्र विद्या नहीं सिखा सकता।

एकलव्य भी यह बात जानता था, अतः उसने गुरू का उत्तर सुनकर कोई दुःख नहीं हुआ। वह निराश नहीं हुआ। उसने आचार्य के सामने भूमि पर लेटकर पुनः प्रणाम किया और कहा- ‘‘भगवान! मैंने तो आपको गुरू मान लिया है। मैं आपको किसी धर्मसंकट में नहीं डालूँगा। मुझ पर केवल आपकी कुपा बनी रहे।’’

एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर घर आ गया। वह बहुत उदास था। पर उसने अपनी रूचि नहीं छोड़ी इस कारण वह एक दिन बिना किसी को बताए। कहीं वन में चला गया। वहाँ उसने मिट्टी से सबसे पहले अपने गुरू द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई। उसे स्थापित करके प्रणाम किया और बाण-विद्या का अभ्यास करने लगा।

अभ्यास करते-करते कई महीने बीत गए। उसका अभ्यास निरंतर चलता रहा। इस प्रकार कई वर्ष बीत गया।

एक दिन आचार्य द्रोण अपने शिष्यों को अभ्यास कराने के लिए वन में ले गए। संयोगवश उनके साथ का एक कुत्ता भटकता हुआ वहाँ पहुँच गया। जहाँ एकलव्य द्रोणाचार्य की मूर्ति के सामने बाण-विद्या का अभ्यास करता था। वह एकलव्य की वेशभूषा को दखकर भौंकने लगा। एकलव्य अपना अभ्यास कर रहा था। कुत्ते के भौंकने से उसके अभ्यास में बाधा पड़ रही थी। अतः उसने सात बाण इस प्रकार चलाए कि कुत्ते का मुँह बंद हो गया। विवश होकर वह द्रोणाचार्य के पास पहुँच गया।

कुत्ते के मुँह को बाणों बंद हुआ देखकर सब आश्चर्य में पड़ गए। आश्चर्य इसलिए कि कुत्ते को कहीं चोट नहीं लगी थी पर बाण उसके मुँह में आड़े-तिरछे इस प्रकार लगे थे कि कुत्ते को कहीं सकता था। यह धनुर्विद्या का बहुत बड़ा कौशल था। अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा-‘‘गुरूजी! आप तो कहते थे कि मुझे सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे। पर, मुझमे तो ऐसा ज्ञान नहीं है।’’ गुरू जी ने कहाँ-‘‘चलो उस धनुर्धन को ढूँढ़ें।’’ सब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एकलव्य के अभ्यास स्थल पर पहुँचे गए। एकलव्य ने जैसे ही द्रोणाचार्य को देखा उनके चरणों में गिर पड़ा।

आर्चाय ने एकलव्य से प्रश्न किया- बालक! बाण विद्या का इतना अच्छा अभ्यास तुम्हें किसने कराया हैं?’’ एकलव्य ने नम्रता के साथ कहा- ‘‘भगवन्! मैं तो आपके ही श्रीचरणों का दास हूँ।’’ यह कहकर उसने मिट्टी की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया। द्रोणाचार्य ने सोचा इससे तो अर्जुन निराश हो जाएगा, और आर्चाय अर्जुन को नाराज नहीं करना चाहते थे।

द्रोणाचार्य बहुत चतुराई के साथ कहा- ‘‘वत्स! क्या इस हस्तकौश सीखने की मुझे दक्षिणा दोगे?’’ एकलव्य बहुत खुश होत हुए कहा- ‘‘आज्ञा कीजिए भगवन्!’’ द्रोणाचार्य ने कहा मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगुठा चाहिए।

एकलव्य बहुत हैरान रह गया और सोचने लगा दाहिने हाथ के अगुठे के बिना मैं तीर कैसे चलाया जा सकता है। मेरी इतना अभ्यास, इतना परिश्रम सब बेकार हो जाएगा।

उसके बाद एकलव्य ने गुरूभक्ति का प्रणाम देते हुए दाहिने हाथ का अंगुठा काटा और गुरूजी के सामने रख दिया। द्रोणाचार्य ने फिर कहा- बेटा! संसार में बहुत से धनुर्विधा के पण्डित हुए हैं और होगें भी, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस महान त्याग सदा अमर रहेगा।

इस कहानी से हमें द्रोणाचार्य ने एकलव्य को किस प्रकार शिक्षा दी। और कितने संघर्ष के बाद एकलव्य ने धनुष की ज्ञान प्राप्त कि कई वर्ष पहले किस प्रकार से गुरू के द्वारा शिक्षा मिलती थी। और शिक्षा लेने के बाद गुरू को गुरू दक्षिणा किस प्रकार दिया जाता था।

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