Sachchai ka Puruskar Hindi Story | सच्चाई का पुरस्कार हिंदी कहानी

Sachchai ka Puruskar : एक डाकू था। डाकू का काम होता है- डाके डालना, लोगों को मारना, उनके रूपये, गहने कपड़े लेकर नौ दो ग्यारह हो जाना होता हैं। यही काम उस डाकू का था। पता नहीं कितने लोगों को उसने मार डाला, न मालूम कितने पाप कर डाले।

एक बार एक स्थान पर सत्संग हो रहा था। कोई संत कथा कह रहे थे। सत्संग में बहुत सारे लोग आये हुए थे। वह डाकू भी सत्संग में आया हुआ था।

डाकू ने सोचा- कथा जब तक समाप्त होगी तब तक रात हो जाएगी। कथा में से बहुत-से धनी लोग जब अपने घर को वापस जाएँगे। मौका मिलते ही उनमें से किसी को लूट लूँगा।

कथा जैसे ही समाप्त हुई तो सत्यसंग का प्रभाव उस डाकू पर भी पड़ा। क्योंकि कोई भी हो वह जैसे समाज में जाता है उस समाज का हो प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है।

सत्यसंग में थोड़ी देर बैठने या किसी बहाने से कुछ देर वहाँ जाने में भी लाभ प्राप्त होता है। सत्यसंग का मन पर कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है।

कथा सुनकर डाकू को लगा कि ये संत तो बहुत अच्छे हैं। उसकी यह धारणा इसलिए बनी थी कि कथा में उसने सुना था कि मरने पर पापों का दंड अवश्य मिलेगा। इससे वह घबरा भी गया था।

वह संत के पास गया। हाथ जोड़कर विनम्र शब्दों में संत से बोला-‘‘महराज! मैं डाकू हूँ। डाका डालना मैं छोड़ नहीं सकता क्योंकि यही मेरी जीविका है। क्या किसी उपाय से मेरा उद्धार हो सकता है?’’ संत कुछ देर तक सोचा-विचार करते रहे, फिर बोले-‘‘तुम झूठ बोलना छोड़ दो, तुम्हारा कल्याण होगा।’’

डाकू ने यह बात मान ली। वह संत के पास से लौट पड़ा। कथा सुनने वाले सभी वापस अपने घर चले गए थे। अतः उनमें से किसी को लूटने पाटने का डाकू को अवसर ही नहीं मिला। डाकू ने फिर राजा के यहाँ डाका डालने को सोचा। डाकू राजमहल की ओर चल पड़ा। महल के पहरेदार ने डाकू को देखा तो उससे पूछा कौन हो तुम?

डाकू ने उत्तर दिया मैं डाकू हूँ, और यहाँ डाका डालने आया हूँ।

पहरेदार ने सोचा कोई राजमहल का ही आदमी है। देर हो जाने के कारण ऐसा बोल रहा है। उसने रास्ता छोड़ दिया और कहा-‘‘नाराज क्यों हो रहे मैं तो एक सीधा सा सवाल पूछ रहा था।

डाकू सीधे महल के खजाने के पास चला गया और एक बड़ा सा संदूक जिसमें बहुत सारे सोने के सिक्के और गहने उस संदूक मै भर लिया। जितना वो उठा कर अपने साथ ले जा सके।

डाकू ने उस संदूक को अपने सर पर रखकर बाहर निकला। पहरेदार ने फिर पूछा-‘‘क्या ले जा रहे हो?’’

डाकू सोच रहा था कि यदि इतना धन लेकर मै राजमहल से निकल गया और पकड़ा नही गया तो राज के बाद मै कभी नही डाका डालँूगा क्यों कि उसे अब यह काम करने में अच्छा नहीं लग रहा था।

अतः बिना झिझके उसने पहरेदार को उत्तर दिया-‘‘डाका डालकर ले जा रहा हूँ।’’ पहरेदार ने सोचा ये कोई चिढ़ने वाला व्यक्ति है। इसलिए ऐसा उत्तर दे रहा है। संदूक में कोई साधारण वस्तु ही होगी। अतः उसने डाकू को नहीं रोका।

सुबह होते ही राजमहल में हंगामा मच गया। गहने वाले संदूक गायब था। पहरेदार से पूछा गया तो उसने सारी बात बतादी। राजा ने गुप्त जनों से उस डाकू का पता लगवाया। उसके सच बोलने से राजा बहुत प्रसन्न थे।

डाकू को राजमहल मैं बुलाया गया और राजा ने उससे वह गहने से भरे नहीं लिया और उसे महल का प्रधान रक्षक बनने को कहाँ, डाकू ने फिर राजा से अनुरोध किया कि वो संदूक महल में वापस लाना चाहता है। उसके बाद ही वह राजमहल का प्रधान रक्षक बनेगा।

राजा ने भी डाकू की बात मानली और संदूक राजमहल में वापस आ गया।

इस कहानि से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है। कि हमें हमेशा अच्छे समाज में ही रहनी चाहिए। और अगर कोई गलत रास्ते पर हो तो हमें उसे सही रास्ता दिखाना चाहिए।

अतिथि विनोद | बेडटाइम स्टोरी फॉर किड्स इन हिंदी

किसी गांव में एक विनोद नाम का व्यक्ति रकता था। उसी गांव के एक धनी आदमी के यहा एक घर में भोजन का आयोजन किया गया था।
उस धनी आदमी ने गांव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब सब को भोजन के लिए निमंत्रित किया।

विनोद ये सोच कर बहुत खुश था कि आज उसे पेट भर कर खाने को स्वादिष्ठ और बहुत सारे पकवान मिलेगें। जब विनोद उस आयोजन पर पहुंचा तो उसे बहुत दुःख हुआ क्योंकि किसी ने विनोद पर ध्यान ही नहीं दिया।

किसी ने तो न प्रणाम किया, न ‘आइये’ कहा, न भोजन की ओर जाने का संकेत किया। सभी केवल बड़े आदमियों की आवभगत में लगा हुआ था। विनोद जैसों के लिए किसी को फुर्सरत नहीं थी।

काफी देर तक एक जगह विनोद चुप-चाप खड़ा रहा उसके बाद विनोद वापस घर वापस लौट आया। घर से उनके कुछ पैसे लिए। किराये के कपड़े के दुकान पर गया, अपने लिए कपड़े किराये पर लिए। फिर किराये के शानदार वस्त्र पहनकर दोबारा जा पहुंचा आयोजन स्थल पर।

इस बार बात अलग थी। द्वार पर स्वागतार्थ खड़े लोगों की नजर जैसे ही विनोद पर पड़ी, वे तुरंत उसके पास आगे आये, झुककर सलाम किया, कुशलक्षेप पुछी। दूसरे कुछ व्यक्ति विनोद को भोजन स्थल तक छोड़ने गए। बड़ी विनम्रता से उन्होंने विनोद के हाथों में प्लेट पकड़ाई और कहा, ‘श्रीमान, कृप्या कर अपनी रूचि के अनुसार व्यंजन लीजिये।’

विनोद ने अपने पसंद के व्यंजनों से तश्तरी तो भर ली, मगर भोजन खाने के बजाये भोजन अपने कपड़ों पर मलने लगा। चावल उठाकर अपने जेब में भरने लगा सब्जि अपने कपड़े के बटन पर टपकालिया और पापड़ अपने पेट पर रगड़ने लगा। वहां के लोग अपना भोजन करना छोड़ कर ये तमाशा देखने लगे।

वहां के लोग कानाफूसियां करना शुरू कर दिए, कोई उसकों पागल समझने लगे, कोई उससे डरने लगा की यह कौन हैं और क्या कर रहा है।
‘किसी ने हिम्मत कर के पूछा ये आप क्या कर रहे हैं श्रीमान?’

‘विनोद ने जबाव दिया आपने कपड़े को खाना खिला रहा हूं, क्योंकि भोज में यहीं निमंत्रित हैं- मैं नहीं। विनोद ने शांति से उत्तरदिया। वहां उपस्थित किसी व्यक्ति ने बोला हम कुछ समझे नहीं।

विनोद ने बोला इसमें समझाने जैसा क्या है? ये तो बड़ी सीधी-सच्ची सी बात है।, मैं यहां थोड़ी देर पहले भी आया था। क्यों कि मैं एक गरीब आदमी हूं औैर मैं अपने हैसियत के मुताबिक अच्छे और साफ कपड़े पहनकर आया था। लेकिन मुझे पूछना तो दूर किसी ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। फिर दुबारा, जब मैं ये रेशमी परिधान पहनकर आया तो लोगों ने मुझे हाथों-हाथों स्वागत किया।

जिन्होंने गर्दन झुका-झुका कर मेरा स्वागत किया। जाहिर ये सब मेरे वस्त्र के कारन हुआ है। यदि मेरे लिए होता तो यूं दूबारा मुझे रेशमी कपड़े पहनकर आना ना पड़ता। फिर ये व्यवहार में ये अंतर क्यों? इसलिए आप लोग परेशान मत होइए और मुझे इन निमंत्रित वस्त्रों को खाना खिलाने दीजिए।

विनोद ने विस्तार से सब कुछ समझाया। विनोद की बात सुनकर एक साथ बहुत से सर शर्म से झुक गए।

व्यक्ति के वस्त्र उसका परिचय नहीं होते हैं। केवल इसलिए ही व्यक्ति सम्मान का पात्र नहीं हो जाता, व्यक्ति की असली पहचान उसका व्यवहार होता है।

यह भी पढ़ें-

Spread the love

हम लाते हैं मजदूरों से जुड़ी खबर और अहम जानकारियां? - WorkerVoice.in 

error: Content is protected !!