Moral Stories in Hindi for Class 10 बच्चों के लिए नैतिक कहानियाँ

आज हम Moral Stories in Hindi for Class 10 बच्चों के लिए नैतिक कहानियाँ शेयर करने जा रही हूँ। जिससे आपके बच्चों को न केवल ज्ञान होगा, बल्कि वो अच्छी आदतें भी सीख पायेंगे। हमें कहानियां के माध्यम से बच्चों को दुनिया के बारे में बताने और समझाने में मदद मिलती है।

Moral Stories in Hindi for Class 10

Best Moral Stories in Hindi for Class 10 बच्चों के लिए नैतिक कहानियाँ-

आमिर खुसरो की कहानी

आज से बहुत पुरानी (Purani) बात है। आज की तरह उस समय वायुयान, रेल और मोटरें नहीं थी। लोग या तो घोड़ों से यात्रा करते थे या फिर पैदल चलते थे। उस समय गर्मी के दिन थे। एक घुड़सवार घोडा दौड़ाये चला जा रहा था। उसे बहुत ही जोरों की प्यास लगी थी और वह पानी की खोज में था। बहुत देर से पानी नहीं मिलने के कारण वह घबरा रहा था।

कुछ दूर पर एक बस्ती दिखी। वहां कुएं पर पनिहारिनें पानी भर रही थीं। घुड़सवार घोडा से उतरा। उसने पनिहारिनों से पानी मांगा। एक पनिहारिन बोली- “घुड़सवार पानी तो मिलेगा, लेकिन पहले एक कविता सुनाओ।” कविता? कैसी कविता सुनोगी? घुड़सवार ने पूछा?

चारों पनिहारियों ने अपनी-अपनी अलग-अलग पसंद थी।
एक बोली- “खीर पर कविता सुनाओ।”
दूसरी ने कहा- “नहीं, चरखे पर कोई कविता सुनाओ।”
तीसरी ने कहा- “नहीं, कुत्ते पर।”
चौथी ने उनकी बात काटी- “नहीं, तुम ढोल पर कविता सुनाओ।”

पनिहारियों की बात सुनकर घुड़सवार चक्कर में पड़ गया। वह थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा। सोचते-सोचते वह एकदम मुस्कराया। फिर बोला- “बड़ी अजीब बात है। एक साथ चार-चार फरमाइशें? पर कोई बात नहीं। लो, चारों ही अपनी-अपनी पसंद की कविता सुनो.”

यह कहकर घुड़सवार ने कविता सुनाई-

“खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चला।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।”

चारो पनिहारियों ने एक ही कविता में चारों बाते सुनी तो वे बड़ी प्रसन्न हुई। उन्होंने घुड़सवार को पानी पिलाया और वह अपने रास्ते चला गया।

लेकिन कौन था वह विचित्र कवि? यह सवाल आपके मन में जरूर होगा। वह प्रसिद्ध कवि थे आमिर खुसरो। उनका वास्तविक नाम था- ख्वाजा अबुल हसन। उनके पिता का नाम आमिर सैफुरुद्दीन महमूद था। आमिर खुसरों का जन्म सन 1256 ई. में हुआ था। वे दिल्ली में रहते थें। वे कई भाषों के विद्वान थे। राजदरवार में उनका बड़ा सम्मान था।

बड़ा वही जो छोटा होने में भी प्रसन्न है

स्वामी दयानन्द आर्य समाज के संस्थापक थे। उनका स्वभाव बड़ा विनोदी था। मगर कभी-कभी उनका हास्य व्यंग बड़ा तीखा हो जाता था। वह इतना तीखा कि विपक्षी तिलमिला उठता था।

एक बार दयानन्द जी किसी पंडित से मिलने गए। पंडित तो स्वंय तो ऊंचे आसन पर चढ़कर बैठ गए और स्वामी दयानन्द को अपमानित करने के लिए बैठने को नीचा आसन दिया। स्वामीजी उस आसन पर बैठ गए मगर पंडित जी की चालाकी उनके छुपी न रह सकी।

पास ही नीम के पेड़ पर एक पेड़ की ऊंची टहनी पर बैठ हुआ कौआ कॉव- कॉव कर रहा था। स्वामी जे ने एक बार उस नीम के पेड़ को देखा, फिर पंडित जी से कहने लगे- “पंडित जी. हम दोनों में कौन बड़ा है?”

इसपर पंडित जी अहंकार में भरकर बोले, “यह भी कोई पूछने की बात है? अरे, बड़े तो हम हैं, इसीलिए तो हम ऊंचे आसन पर बैठे हैं।”

दयानन्द ने तुरंत बात काटी- “पंडित जी, हम दोनों से बड़ा वह कौआ है। जो नीम के पेड़ के ऊंची टहनी पर बैठा है। आपके कहने के अनुसार ऊंचे आसन पर बैठने वाला ही बड़ा होता है, तो इस समय वह कौआ ही सबसे ऊंचे आसन पर बैठा है। हैं न?”

फिर क्या था, पंडित जी दयानन्द की बात सुनकर खिसिया गए और स्वंय को लज्जित अनुभव करने लगें। मगर जो लोग यह सुन रहे थे वे ठहाका लगाकर हंसने लगे. इसलिए कहा गया है कि “बड़ा वही जो छोटा होने में भी प्रसन्न है।”

फांसी और मजाक

यह तब की बात है, जब देश स्वतंत्र हुआ नहीं था। स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले कई लोगों को अंग्रेज शासकों ने गिरफ्तार कर लिया था। जिनपर मुकदमा चलाकर कई लोगों को फांसी के तख्ते पर लटकाया गया था।

मुजफ्फरपुर बिहार की जेल की तंग कोठरी में एक नवयुवक बंद था। एक दिन के बाद उनको फांसी लगनी थी।

अग्रेज जेलर उनके कोठरी के पास से जब घूमता हुआ गुजरा उसे उस नवयुवक कैदी पर दया आ गई। वह कानून से बंधा था फिर भी उसने उसे पके हुए आम को एक लिफाफे से निकल कर उस कोठरी के सरियेदार फाटक में रख दिए और कहा -“घबराओ मत बेटे। यह आम खाओ, बहुत ही मीठे हैं।”

जेलर के कहने के बावजूद वह युवक बिना प्रतिक्रिया दिए चुपचाप अपनी जगह बैठा रहा। इसके बाद जेलर एक बार और आम खाने को कहकर चला गया। शाम को वह फिर उस कोठरी के सामने से गुजरा तो उसके आश्चर्ज का ठिकाना नहीं रहा। फाटक के सरिए के बीचो-बिच आम ज्यों का त्यों रखे हुए थे।

जेलर ने मन ही मन सोचा- “मौत के डरसे शायद युवक ने खाना-पीना छोड़ दिया है।”

जेलर ने युवक से कहा- “बेटा. आम उठा लो. खाकर देखो, सचमुच बहुत मीठे हैं।”

युवक अपने जगह से फिर से नहीं हिला। चुपचाप दरवाजे के तरफ देखता रहा।

जेलर ने सोचा- “क्यों नहीं मैं ही इसे अपने हाथों से ही आम खिला दूं।” फिर उसने कहा “उठो बेटा. आम ले लो।”

यह कहते हुए जेलर ने जैसे ही आम उठाने के लिए अपना हाथ लगाया वैसे ही आम पिचक गए।

लेकिन आम पिचके क्यों?

बात यह थी कि युवक ने इतनी सफाई से आम का रास चूसकर उसे फिर उनके छिलकों को चतुराई से फुलाकर रख दिया था। जिससे कोई जान ही न सके कि वे चूसे हुए आम हैं।

जेलर से मजाक करने के बाद जेल में बंद युवा कैदी अब ठहाका लगाकर हंस रहा था।

जेलर ने देखा कि कैदी इस तरफ से निश्चिंत है कि कल उसे फांसी लग जाएगी।

अब अब यह सोच रहें होंगे कि आखिर कौन था वह युवा कैदी जिसको फांसी लगने के कुछ घंटों पहले हंसी सूझ रही थी। वह था उन्नीस वर्ष की अवस्था का क्रांतिकारी नवयुवक खुदीराम बोस। उसके लिए अपने देश पर मर मिटाना भी एक हंसी का खेल था।

इस कहानी से सीख – “देश के लिए बलिदान हो जाना अमरता प्राप्त करता है।”

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